देवी अपराध क्षमापन स्तोत्र | Devi Aparadh Kshamapan Stotra |

 

देवी अपराध क्षमापन स्तोत्र

देवी अपराध क्षमापन स्तोत्र


हे मात ! मैं तुम्हारा मन्त्र, यन्त्र,स्तुति, आवाहन, ध्यान, स्तुतिकथा, 
मुद्रा तथा विलाप कुछ भी नहीं जनता, 
परन्तु सब प्रकारके क्लेशोंको दूर करनेवाला 
आपका अनुसरण करना ही जानता हूँ || १ || 

सबका उद्धार करनेवाली हे करुणामयी माता ! 
तुम्हारी पूजाकी विधि न जाननेके कारण, धनके अभावमें, 
आलस्यसे और
 उन विधियोंको अच्छी तरह न कर सकनेके कारण, 
तुम्हारे चरणोंकी सेवा करनेमें जो भूल हुई हो उसे क्षमा करो, 
क्योंकि पूत तो कुपूत हो जाता है पर माता कुमाता नहीं होती || २ || 

माँ ! भूमण्डलमें तुम्हारे सरल पुत्र अनेकों हैं पर उनमें एक मैं विरला ही बड़ा चञ्चल हूँ, तो भी हे शिवे ! मुझे त्याग देना तुम्हें उचित नहीं,
 क्योंकि पूत तो कुपूत हो जाता है पर माता कुमाता नहीं होती || ३ || 

हे जगदम्ब ! हे मातः ! मैंने तुम्हारे चरणोंकी सेवा नहीं की 
अथवा तुम्हारे लिये प्रचुर धन भी समर्पण नहीं किया,
 तो भी मेरे ऊपर यदि तुम ऐसा अनुपम स्नेह रखती हो 
तो यह सच ही है कि पूत तो कुपूत हो जाता है 
पर माता कुमाता नहीं होती || ४ || 

हे गणेशजननि ! मैंने अपनी पचासी वर्षसे अधिक आयु 
बीत जानेपर विविध विधियोंद्वारा पूजा करनेसे घभड़ाकर
 सब देवोंको छोड़ दिया है, यदि इस समय तुम्हारी कृपा न हो 
तो मैं निराधार होकर किसकी शरणमें जाऊँ ? || ५ || 

हे माता अपर्णे ! यदि तुम्हारे मन्त्राक्षरोंके कानमें पड़ते ही चाण्डाल भी 
मिठाईके समान सुमधुरवाणीसे युक्त बड़ा भारी वक्ता बन जाता है 
और महादरिद्र भी करोड़पति बनकर चिरकालतक निर्भय विचरता है 
तो उसके जप का अनुष्ठान करनेपर जपनेसे जो फल होता है,
 उसे कौन जान सकता है ? || ६ || 

जो चिताका भस्म लगाये हैं, विष खाते हैं, नंगे रहते हैं, 
जटाजूट बाँधे हैं, गलेमें सर्पमाल पहने हैं, हाथमें खप्पर लिये हैं, 
पशुपति और भूतोंके स्वामी हैं, 
ऐसे शिवजीने भी जो एकमात्र जगदीश्वरकी पदवी प्राप्त की है, वह हे भवानि, तुम्हारे साथ विवाह होनेका ही फल है || ७ || 

हे चन्द्रमुखी माता, मुझे मोक्षकी इच्छा नहीं है, 
सांसारिक वैभवकी भी लालसा नहीं है, 
विज्ञान तथा सुखकी भी अभिलाषा नहीं है, 
इसलिये मैं तुमसे यही माँगता हूँ कि मेरी सारी आयु मृडानी, 
रुद्राणी,शिव - शिव, 
भवानी आदि नामोंके जपते - जपते ही बीते || ८ || 

हे श्याम, मैंने अनेकों उपचारोंसे तुम्हारी सेवा नहीं की 
अनिष्टचिन्तनमेंतत्पर अपने वचनोंसे मैंने क्या नहीं किया ? 
फिर भी मुझे अनाथपर यदि तुम कुछ कृपा रखती हो
तो यह तुम्हे बहुत ही उचित है, 
क्योंकि तुम मेरी माता हो || ९ || 

हे दुर्गे ! हे दयासागर माहेश्वरी, 
जब मैं किसी विपत्तिमें पड़ता हूँ
तो तुम्हारा ही स्मरण करता हूँ,
 इसे तुम मेरी दुष्टता मत समझना, 
क्योंकि भूखे-प्यासे बालक अपनी माँको ही याद किया करते हैं || १० || 

हे जगज्जननी ! मुझपर तुम्हारी पूर्ण कृपा है, 
इसमें आश्चर्य ही क्या है ? क्योंकि अनेक 
अपराधोंसे युक्त पुत्रको भी माता त्याग नहीं देती || ११ || 

हे महादेवि ! मेरे समान कोई पापी नहीं है और
 तुम्हारे समान कोई पाप नाश करनेवाली नहीं है, 
यह जानकर जैसा उचित समझो, वैसा करो || १२ || 

|| अस्तु || 

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