श्री रुद्राष्टकं स्तोत्र | Shree Rudrashtakam Stotra |
|| श्री रुद्राष्टकं ||
इस स्तोत्र में आठ श्लोक है इसलिये इसे रुद्राष्टक कहते है और नवाँ श्लोक माहात्म्य है |
भगवान् महादेव के एक प्रिय स्तोत्र जो शिव
के रूद्र स्वरुप को अत्यंत प्रिय है |
यह स्तोत्र कई रागो में संगीतमय गाय जा सकता है |
इस स्तोत्र को पढ़ने वाले भगवान् शिव को प्रिय हो जाते है |
|| श्री रुद्राष्टकं ||
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं
विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं |
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं
चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम || 1 ||
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं
गिरा ग्यान गोतीतमीश गिरीशं |
करालं महाकाल कालं कृपालं
गुणागार संसारपारं नतोऽहम || 2 ||
हे ईशान मैं मुक्ति स्वरुप, समर्थ, सर्वव्यापक, ब्रह्म,
वेदस्वरूप, निजस्वरूपमें स्थित, निर्गुण, निर्विकल्प,
निरीह, अनन्त ज्ञानमय और
आकाशके समान सर्वत्र व्याप्त प्रभु को प्रणाम करता हूँ || १ ||
जो निराकार हैं, ओंङ्काररूप आदिकारण हैं,
तुरीय हैं, वाणी, बुद्धि, और इन्द्रियोंके पथ से परे हैं, कैलाशनाथ हैं,
विकराल और महाकालके भी काल, कृपाल,
गुणोंके आगार और संसारसे तारनेवाले हैं,
उन भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ || २ ||
तुषाराद्रि संकाशगौरं गभीरं
मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं |
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा
लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा || 3 ||
चलत्कुण्डल भ्रू सुनेत्रं विशालं
प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालं |
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं
प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि || 4 ||
जो हिमालय के समान श्वेतवर्ण,
गम्भीर और करोड़ों कामदेवके समान कान्तिमान शरीरवाले हैं,
जिसके मस्तक पर मनोहर गङ्गाजी लहरा रही हैं,
भालदेश में बालचन्द्रमा सुशोभित होते हैं
और गलेमे सर्पोंकी माला शोभा देती हैं || ३ ||
जिनके कानों में कुण्डल हिल रहे है,
जिनके नेत्र एवं मुकुटी सुन्दर और विशाल है,जिनका मुख प्रसन्न और कंठ निल है, जो बड़े ही दयालु हैं, जो बाधकी खालका वस्त्र और मुण्डोंकी माला पहनते हैं, उन सर्वाधीश्वर प्रियतम शिवका मैं भजन करता हूँ || ४ ||
प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं
अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं |
यत्रः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं
भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं || ५ ||
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी
सदा सज्जनानन्ददाता त्रिपुरारी |
चिदानन्द संदोह मोहापहारी
प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी || 6 ||
जो प्रचण्ड, सर्वश्रेष्ठ, प्रगल्भ, परमेश्वर, पूर्ण, अजन्मा,
कोटि सूर्यके समान प्रकाशमान,
त्रिभुवन के शूलनाशकऔर हाथमें त्रिशूल धारण करनेवाले हैं,
उन भावगम्य भवानीपतिका मैं भजन करता हूँ || ५ ||
हे प्रभु ,आप कलारहित, कल्याणकारी और कल्प का अन्त करने वाले हैं |
आप सर्वदा सत्पुरुषोंको आनन्द देते हैं,
आपने त्रिपुरासुरका नाश किया था, आप मोहनाशक और
ज्ञाननन्दधन परमेश्वर हैं, कामदेव के आप शत्रु हैं,
आप मुझपर प्रसन्न हों, प्रसन्न हों || ६ ||
न यावद उमानाथ पादारविन्दं
भजंतीह लोके परे वा नराणां |
न तावत्सुखं शांति सन्तापनाशं
प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं || 7 ||
न जानामि योगं जपं नैव पूजां
नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यं |
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं
प्रभो पाहि आपन्नमीश शम्भो || 8 ||
मनुष्य जबतक उमाकान्त महादेवजी के चरणारविन्दोंका भजन नहीं करते,
उन्हें इहलोक या परलोक में कभी सुख और
शान्तिकी प्राप्ति नहीं होती और न उनका सन्ताप ही दूर होता हैं |
हे समस्त भूतोंके निवासस्थान भगवन् शिव, आप मुझपर प्रसन्न हों || ७ ||
हे प्रभु, हे शम्भो, हे ईश, मैं योग, जप और पूजा कुछ भी नहीं जानता, शम्भो, मैं सदा सर्वदा आपको नमस्कार करता हूँ | जरा, जन्म और दुःखसमूहसे सन्तप्त होते हुए मुज दुःखीकी दुःखसे आप रक्षा कीजिये || ८ ||
|| फलश्रुतिः ||
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये |
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति || 9 ||
जो मनुष्य भगवन् शंङ्कर की तुष्टिके लिये ब्राह्मणद्वारा कहे हुए इस रूद्राष्टकका भक्तिपूर्वक पथ करते हैं, उनपर शङ्करजी प्रसन्न होते हैं || ९ ||
|| इति श्री रुद्राष्टकं सम्पूर्णं ||
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