वटसावित्री व्रत कथा | Vatsavtri Vrat Katha |
वटसावित्री व्रत कथा
एक ऐसा अद्भुत व्रत जो स्त्रीओ को सौभाग्य प्रदान करता है, संतानोत्पत्ति में सहाय रूप होता है अर्थात संतान प्राप्ति में भी सहायता प्रदान करता है |
वो व्रत है श्री वटसावित्री व्रत |
इस व्रत के नामो में ही इसका महत्व दार्शनिक होता है जैसे
"वट" जो एक पवित्र वृक्ष है और "सावित्री" जिसके संदर्भ में इस व्रत में कथा है इसलिए
इस व्रत को "वटसावित्री" व्रत कहते है |
हमारे शास्त्रों में जितना महत्व पीपल के पेड़ का है ठीक ठीक उतना ही महत्व वटवृक्ष का है उसके कई सारे प्रमाण मिलते है जैसे भगवान् कृष्ण ने ही बालस्वरूप वटवृक्ष में शयन किया था "वटस्यपत्रस्य पुटे शयानं" और सत्यनारायण कथा में पञ्चम अध्याय के दूसरे श्लोक में भी कहा है " आगत्य वटमूलं च दृष्ट्वा सत्यस्य पूजनम" अथात गोवालो ने भी सत्यनारायण की कथा वटवृक्ष के निचे ही की थी यही से यह भी प्रतिपादित होता है की वटवृक्ष का कितना माहात्म्य है |
शास्त्रों में यह भी प्रमाण है की "वटवृक्ष के मूल में ब्रह्माजी,मध्यभाग में जनार्दन,अग्रभाग में शिव और सम्पूर्ण वटवृक्ष में सावित्री" का निवास होता है | वटवृक्ष अपनी विशालता के लिये भी प्रसिद्ध है |
हालांकि 'स्कन्द' और "भविष्योत्तर पुराण" में इस व्रत के विषय में भिन्न मत है और "निर्णयसिन्धु"में भी कुछ भिन्न मत है |
स्कन्द और भविष्योत्तर में कहा हुआ है यस व्रत ज्येष्ठ माह की शुक्ल पूर्णिमा को करे जब की निर्णयसिन्धु में कहा हुआ है की ज्येष्ठ माह की अमावस्या को यह व्रत करे |
किन्तु विद्वानों के मतानुसार ज्येष्ठ माह की शुक्ल त्रयोदशी से शुरूकर पूर्णिमा तक यह व्रत करना चाहिये |
(आप चाहो तो कृष्ण त्रयोदशी से शुरूकर अमावस्या तक भी कर सकते है)
यह व्रत कैसे करे ?
सुहागिनी स्त्रियाँ वटसावित्री के दिन सम्पूर्ण सोलह श्रृंगार कर जैसे स्वयं देवी हो ऐसे तैयार होती है | श्रृंगार करके सिंदूर, पुष्प, रोली, चना, अक्षत, फल और मिठाई आदि से सत्यवान और यमराज की पूजा करते है |
या फिर सरल भाषा में कहु की पंचोपचार या षोडशोपचार पूजन करे |
संकल्प कैसे करे ?
किसी भी व्रत या पूजन में संकल्प बहुत ही महत्व होता है क्युकी संकल्प में हम किस उद्देश्य से यह व्रत बोलना होता है अगर संकल्प किये बिना ही व्रतादि कर्म करते है तो कोई फल प्राप्त नहीं होता |
इस व्रत में संकल्प लेना है की " हे वटवृक्ष में आज ( यहाँ माह-पक्ष-तिथी-नक्षत्र-आदि का उच्चारण करना है) और मुख्य उद्देश बोलना है, की में अपने पति और संतान के अच्छे स्वस्थ्य के लिये एवं में कभी भी विधवा न बनु अनेक जन्मो तक इसलिए में यह वटसावित्री व्रत करती हु | यह संकल्प करे फिर व्रत को नमस्कार करे और करे |
प्रार्थना करे
हे वटवृक्ष अमृत समान जल में तुम को सींचती हु | ऐसा कहकर भक्तिपूर्वक एक सूत के डोर से वट को बांधे और कुमकुम-चंदनादि-पुष्प-अक्षत- से पूजन कर यथाशक्ति वटवृक्ष की प्रदक्षिणा करे |
वटसावित्री व्रत कथा
इस विषय में बहुत ही प्रचलित कथा है सावित्री और सत्यवान की | प्राचीन काल में मद्रदेश में अश्वपति नाम के एक राजा थे | वो बहुत ही सत्यवादी-ब्राह्मणप्रिय-धर्म में आचरण करने वाले और जितेन्द्रिय थे | राजा सभी प्रकार के सुख-वैभव से युक्त थे |
लेकिन सभी सुख होने के बाद भी वो निःसंतान था | इसलिए उस राजा ने अठारह वर्षो अपनी पत्नी सहित सावित्री देवी का विधिपूर्वक व्रत-पूजन-अर्चन तथा कठोर तपस्या की |
इसी से सावित्री ने प्रसन्न होकर पुत्री के रूप में अश्वपति के घर जन्म धारण किया | राजा ने उस कन्या का नाम "सावित्री" रखा |
सावित्री शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की कला के समान जल्द बढ़ने लगी | वह इतनी सुन्दर थी की सब उस पर मोहित हो जाते थे |
इतनी सुन्दर होने के बावजूद भी राजा के विशेष प्रयत्न करने के बाद भी सावित्री के योग्य कोई वर नहीं मिला |
तब राजा ने अपनी पुत्री से ही कहा की अब तुम स्वयं ही अपने लिये योग्य वर ढूंढे |
सावित्री ने पिता की आज्ञा को स्वीकार कर अपने मंत्रियो के साथ सोने के रथ पर बैठकर यात्रा के लिए निकल गए | कुछ दिनों में आश्रमों और ब्राह्मणो के तपोवन और तीर्थो में भ्रमण कर वो वापिस राजमहल लौट गए |
उसने पिता के साथ देवर्षि नारद को बैठे देखकर उन दोनों के चरणों में प्रणाम किया |
तब सावित्री ने अपने पिता को कहा हे पिताजी तपोवन में अपने माता-पिता के साथ निवास कर रहे द्युमत्सेन के पुत्र "सत्यवान" मुझे पसंद है वो मेरे वर है | यह बात सुनकर नारदजी ने कहा
लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह थी की सत्यवान की आयु केवल एक वर्ष की शेष बाकी थी | और सावित्री की आयु जब बारह वर्ष की होगी तब सत्यवां की मृत्यु हो जाएगी |
ऐसा नारदजी ने कहा तब सावित्री के पिता ने कहा सावित्री तूम फिर से भ्रमण कर दूसरा वर ढूंढो | तब सावित्री ने कहा में पिताजी | में आर्यकन्या होने के कारण में सत्यवान को वरण हो चुकी हु | सत्यवान चाहे अल्पायु हो या दीर्घायु अब वही मेरे वर बनेंगे |
अपनी पुत्र के यह वचन सुनकर राजा ने उसका विवाह सत्यवान से कर दिया | सावित्री ने नारदजी से सत्यवान की मृत्यु का समय ज्ञात कर लिया | फिर वो अपने पति परिवार के साथ वन में रहने लगी | मृत्य का समय नजदीक आने लगा
नारदजी ने एक उपाय सावित्री को बताया था जैसे ही वो समय नजदीक आया सावित्री ने तीन दिन पूर्व ही निराहार रहना शुरू कर दिया और व्रत आरम्भ किया | नारद जी द्वारा बताई तिथि को वो अपने पति के साथ जंगल में फल-पुष्प- लकड़ी लेने के लिए निकल गयी |
जब सत्यवान लकड़ी काटने के लिए बड़े वृक्ष पर चढ़ा तब उसे लकड़ी काटते समय सर में भयंकर पीड़ा होने लगी | वो पेड़ पर से निचे उतर गया | (कुछ ग्रंथो में यह भी कहा है की उसे सर्पदंश हुआ था)
इसी समय सावित्री ने एक लाल भयंकर आकृति वाले एक पुरुष को देखा | वे साक्षात् यमराज थे | यमराज ने ब्रह्मा के विधान अनुसार सावित्री को कहा "तुम पतिव्रता हो" |
तेरे पति की आयु समाप्त हो गयी है में उसे लेने आया हु | ऐसा कहकर सत्यवान के प्राणो को निकलकर यमराज दक्षिण दिशा की और अपने साथ लेकर चलने लगे तब, सावित्री ने सत्यवान के शरीर को वटवृक्ष के निचे रखा और वो भी यमराज के पीछे पीछे चल पड़ी |
यमराज ने उसे वापिस लौटने को कहा | तब उसने कहा हे यमराज जी जहां पति वही पत्नी जाती है, यही पत्नीधर्म है, सावित्री की यह धर्मयुक्त बात सुनकर यमराज का ह्रदय पिघलने लगा | तब यमराज ने उसे कहा अपने पति के प्राणो के अलावा कुछ भी मांगो में सबकुछ दूंगा |
तब सावित्री ने कहा सास-ससुर की आँखों की ज्योति दे और उनकी आयु दीर्घायु हो | यमराज ने तथास्तु कहा |
यह कहकर यमराज अपने मार्ग में चलने लगे सावित्री फिर से उनके पीछे चलने लगी और बोली पति के बिना पत्नी की कोई सार्थकता नहीं होती |
यमराज ने पुनः वरदान मांगने को कहा |
तब सावित्री ने कहा मेरे श्वसुर का राज्य वापिस देदो |
यमराज ने तथास्तु कहा |
इसी तरह सावित्री यमराज के पीछे पीछे चलने लगी इस बार
यमराज से सावित्री ने सौपुत्रो को प्राप्त करने का वरदान माँगा | यमराज ने तथास्तु कहा |
सावित्री बोली के बिना पति के में माँ कैसे बन सकती हु कृपया यह वरदान भी पूर्ण करे तब यमराज ने गद्गदित भाव से सत्यवान के प्राणो को अपने पाशंकुश से मुक्त करदिया |
तब सावित्री अपने पति के प्राणो को लेकर वो वटवृक्ष के निचे गयी जहा सत्यवान का शरीर था | जैसे ही सावित्री ने वटवृक्ष की पूजा कर प्रदक्षिणा की सत्यवान पुनर्जीवित हो गया |
प्रसन्नचित्त से सावित्री ने देखा अपने सास ससुर की नेत्रज्योति वापिस आ गयी राज्य वापस आ गया |
खोया हुआ सबकुछ मिल गया वो सौ पुत्रो की माता बनी |
इस तरह से यह व्रत कर सावित्री ने सतीत्व के बलपर अपने पती के मृत्यु को वापिस ले आयी | पतिधर्म से प्रसन्न होकर यमराज ने सभी वरदान दिये और अपने सास-ससुर की आँखे अच्छी होने के साथ राज्य भी प्राप्त किया |
यह घटना को देखकर और सुनकर चारोओर सावित्री की ही चर्चा होने लगी और तब से ही इस व्रत को आचरण का करने की परंपरा शुरू हुई |
सिर्फ इतना ही नहीं जो पतिव्रता स्त्री यह व्रत करती है वो भी अपने जीवन में सब कुछ प्राप्त कर लेती है |
जो की भी यह कथा पढता या सुनता है उनकी सभी कामना सिद्ध हो जाती है ||
|| अस्तु ||
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